अमृता प्रीतम… यह नाम एक साथ कई तरह के फलक खोलता है. स्त्री चेतना और स्त्री स्वतंत्रता की पुख्ता आवाज अमृता प्रीतम का जिक्र जब जब होता है उनके जीवन के तमाम पहलुओं से सिमटते हुए बात साहिर और इमरोज पर आ कर ठहर जाती है. जबकि इस एक आयाम से अलग और समानांतर दर्द का पूरा वितान है. स्त्री का दर्द, विभाजन का दर्द, इंसानियत का दर्द. एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति विस्तार पा कर समूची मानवता की पीड़ा का बयान बन जाता है. एक रूह बंधन वाली सारी पहचान मिटा कर आजाद हो जाना चाहती है.
आज मैंने
अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहां भी
आजाद रूह की झलक पड़े
समझना वह मेरा घर है.
31 अगस्त को अमृता प्रीतम की जयंती है. उनका जन्म 31 अगस्त 1919 को गुंजरावाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था. जब वे 11 वर्ष की थीं तब उनकी मां का निधन हो गया था. वे बचपन से ही अपने मनोभावों को कागज पर उतारने लगी थीं. 16 साल की उम्र में विवाह हुआ लेकिन वह सुखद वैवाहिक जीवन नहीं था. विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आ गया. प्रीतम को उनके लेखन के लिए 1956 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. पंजाबी में साहित्य सृजन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली पहली महिला थीं. 1982 में ‘कागज ते कैनवस’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ. 1969 में उन्हें पद्म श्री और 2004 में पद्म विभूषण दिया गया. 86 वर्ष की उम्र में 2005 में दिल्ली में अमृता का निधन हुआ. इस अवधि का उनका जीवन बेहद उतार-चढ़ाव वाला रहा इतना कि उनके रचे साहित्य जितनी ही जिज्ञासा और चर्चा जीवन के प्रति भी होती है. लेकिन जीवन के हर आयाम से बड़ा उनका लेखन पक्ष है जिसने अपने समय को व्यक्त किया है. उनके समूचे साहित्य में दर्द समान रूप से मौजूद है, बंटवारा झेलने वाले समाज का दर्द, समाज में बंटे इंसानों का दर्द, इंसानों में बंटी स्त्री का दर्द. वह दर्द जिसके लिए अमृता प्रीतम ने लिखा है:
एक दर्द था
जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया
सिर्फ कुछ नज्में हैं
जो सिगरेट से राख की तरह मैंने झाड़ी हैं.
बंटवारे के बाद अमृता प्रीतम पाकिस्तान छोड़कर भारत आईं और उनका शुरुआती समय देहरादून में बीता. इस दौरान लिखी गई उनकी नज्म ‘अज्ज आखां वारिस शाह नूं’ एक ऐसी प्रतीक रचना बन गई जिसने सीमा के दोनों और बंट कर रह गई स्त्री का दर्द कह सुनाया है. सन्नाटा बुनती उस एक रात चलती ट्रेन में कांपते हाथों से लिखी गई यह नज्म बंटवारें से उपजी कितनी ही काली रातों का लेखाजोखा है. इस कविता में अमृता प्रीतम ने वारिस शाह को संबोधित किया है. वारिस शाह 18 वीं सदी के पंजाबी सूफी कवि थे जिन्होंने हीर-रांझा की कथा लिखी थी.
वारिस शाह को याद दिलाते हुए अमृता ने इस नज्म में लिखा है, जब पंजाब में एक बेटी हीर रोई थी तो वारिस शाह ने उसकी कहानी लिखी थी. आज तो लाखों बेटियां रो रही हैं, आज तुम कब्र में से बोलो. उठो, अपना पंजाब देखो जहां लाशें बिछी हुई हैं, चनाब दरिया में अब पानी नहीं खून बहता है. हीर को जहर देने वाला तो एक चाचा कैदो था, अब तो सब चाचा कैदो हो गए हैं.
इस नज्म के कहने की प्रक्रिया पर अमृता प्रीतम ने अपनी जीवनी ‘रसीदी टिकट’ में लिखा है, ‘चलती रेलगाड़ी में नींद आखों के आसपास नहीं थी. गाड़ी के बाहर वाला घोर अंधेरा समय की तवारीख जैसा था. हवा इस तरह सांय-सांय थी जैसे तवारीख के आलिंगन में बैठ कर रो रही हो. बाहर ऊंचे-ऊंचे पेड़ दु:खों की तरह उगे हुए थे. कई बार को पेड़ ना होते और सिर्फ वीरानी होती और उस वीरानी के टीले ऐसे लगते जैसे कब्रें हों. वारिस शाह के बोल मेरे जेहन में घूम रहे थे ‘भलां मोय ते बिछड़े कौण मेले’ (मर हुओ और बिछडों हुओ को कौन मिला सकता है) और मुझे लगा कि वारिस शाह कितना बड़ा कवि था जो हीर के दुःख को गा सका. आज पंजाब की एक बेटी नहीं, लाखों बेटियां रो रहीं थीं. आज इन के दु:खों को कौन गाएगा? वारिस शाह के बिना मुझे कोई ऐसा नहीं लगा जिसको मुखातिब होकर मैं यह बात कहती. उस रात चलती गाड़ी में हिलती और कांपती कलम के साथ यह नज़्म लिखी.
इस नज्म से अमृता ख्यात भी हुई और आलोचना का शिकार भी हुईं. प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह ने जहां कहा था कि अमृता प्रीतम का जीवन है इतना कि उनकी पूरी जीवनी एक रसीदी टिकट पर लिखी जा सकती है. लेकिन उन्होंने भी इस नज्म को ही अमृता का प्रतीक कार्य कहा था. खुद अमृता ने बताया है कि यह नज्म जब लिखी गई तब पंजाब में कई पत्र पत्रिकाएं तोहमतों से भर गई थीं. सिखों को यह आपत्ति थी कि यह कविता वारिस शाह को संबोधित क्यों कर गई. गुरु नानक को संबोधित करके लिखनी चाहिए थी. कम्युनिस्ट कहते थे कि लेनिन या स्टालिन को संबोधित करके क्यों नहीं लिखी. यहां तक कि इस कविता के विरुद्ध कई कविताएं लिखी गईं.
लेकिन यही वह कविता है जिसमें जनता ने अपने दर्द का प्रतिबिंब पाया. कुछ दिनों बाद यह नज़्म पाकिस्तान पहुंची और फैज अहमद फैज की किताब छपी तो उसकी प्रस्तावना में अहमद नदीम कासमी ने लिखा था कि उन्होंने यह नज़्म जेल में पढ़ी थी. जेल से बाहर आकर देखा कि लोग इस नज्म को जेबों में डाल कर रखते थे और रोते थे. अब 1975 में जब पाकिस्तान के मुलतान शहर से एक साहित्यिक मशकूर सावरी दिल्ली आए तो उन्होंने अमृता प्रीतम को बताया था कि पिछले कई बरसों से वह मुलतान में ‘जश्ने वारिस शाह’ मनाते हैं जिसमें लोक गीतों, लोक नृत्य और लोक कलाओं का प्रदर्शन भी होता है. इस आयोजन की शुरुआत नज्म वारिस शाह से की जाती है. वहां सौ गुणा अस्सी फुट के स्टेज पर सेट लगाते हैं जहां रांझे का वन भी होता है हीर का मुकाम भी और यह नज्म करीब पचीस मिनट गाई जाती है. स्टेज पर घुप्प अंधेरा करके रोशनी से धुंआ दिखाते हैं फिर वारिस शाह कब्र में से उठता है. पाकिस्तान के मशहूर गायक एक-एक कड़ी गाते हैं और उन्हीं के मुताबिक स्टेज के दश्य बदलते जाते है और जब नज्म का आखिरी हिस्सा जाता है तो ऐसी गूंज पैदा करते हैं जैसे सारी कायनात में मुहब्बत और खलूस जाग पड़ा हो.
अमृता ने ही बताया है एक बार एक सज्जन पाकिस्तान से आए और उन्हें केले दिए. उस व्यक्ति को वो केले एक पाकिस्तानी ने ये कहकर दिए थे कि आप ‘अज्ज आखां वारिस’ वाली अमृता से मिलने जा रहे हैं. मेरी तरफ से ये केले दे देना. मैं बस यही दे सकता हूं. मेरा आधा हज हो जाएगा.
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित अमृता प्रीतम की चुनी हुई कविताएं शीर्षक वाली पुस्तक में यह नज्म संग्रहित है. इस नज्म में अमृता प्रीतम वारिस शाह से कहती हैं:
अपनी कब्र में से बोलो!
और इश्क की किताब का
कोई नया वर्क खोलो!
पंजाब की एक बेटी रोयी थी,
तूने एक लंबी दास्तान लिखी,
आज लाखों बेटियां रो रही हैं
वारिस शाह! तुम से कह रही हैं:
ऐ दर्दमंदों के दोस्त,
पंजाब की हालत देखो
चौपाल लाशों से अटा पड़ा है,
चनाब लहू से भर गया है.
किसी ने पांचों दरियाओं में
एक जहर मिला दिया है
और यही पानी
धरती को सींचने लगा है
इस जरखेज़ धरती से
जहर फूट निकला है
देखो, सुर्खी कहां तक आ पहुंची
और कहर कहां तक आ पहुंचा!
फिर जहरीली हवा
वन-जंगलों में चलने लगी
उसमें हर बांस की बांसुरी
जैसे एक नाग बना दी
नागों ने लोगों के होंठ डस लिए
और डंक बढ़ते चले गए
और देखते-देखते पंजाब के
सारे अंग काले और नीले पड़ गए
हर गले से गीत टूट गया,
हर चरखे का धागा छूट गया
सहेलियां एक-दूसरे से बिछुड़ गईं,
चरखों की महफिल वीरान हो गई
मल्लाहों ने सारी किश्तियां
सेज के साथ ही बहा दीं
पीपलों ने सारी पेंगें
टहनियों के साथ तोड़ दीं
जहां प्यार के नग्में गूंजते थे
वह बांसुरी जाने कहां खो गई
और रांझे के सब भाई
बांसुरी बजाना भूल गए.
धरती पर लहू बरसा,
कब्रें टपकने लगीं
और प्रीत की शहजादियां
मजारों में रोने लगीं.
आज सभी ‘कैदो’ बन गए –
हुस्न और इश्क के चोर
मैं कहां से ढ़ूंढ़ कर लाऊं
एक वारिस शाह और.
वारिस शाह! मैं तुमसे कहती हूं
अपनी कब्र से बोलो
और इश्क की किताब का
कई नया वर्क खोलो!
यूंं तो बंटवारे पर कई साहित्यकारों ने हृदय विदारक शब्दों में लिखा है ऐसा कि कलेजा मुंह को आता है लेकिन इस एक नज्म में अमृता प्रीतम ने उन तमाम औरतों का दर्द बयान किया था जो बंटवारे की हिंसा में मारी गईं, जिन्होंने कुंओं में कूदकर जान दे दी जिनका बलात्कार हुआ, जिनके बच्चे उनकी आंखों के सामने मार दिए गए. यह वह नज्म है जो समाज को बांटने वाली ताकतों के मुकाबले की उम्मीद किसी अवतार से नहीं बल्कि साहित्यकार से करती है. इसमें अमृता प्रीतम ने एक लेखक से उम्मीद जताई है कि वही समाज में जहर घोलती ताकतों का परास्त करने वाली इश्क की किताब का कोई पन्ना खोल सकता है.
साहित्य से, साहित्यकार से यह उम्मीद अमृता ने सिर्फ एक नज्म में ही नहीं दिखाई बल्कि वे अपने जीवन को बार-बार इसी उम्मीद से रोशन करती रहीं. अकेलेपन से निपटने के अपने तरीके का खुलासा करते हुए वे एक अंग्रेजी फिल्म का जिक्र करती हैं. वे लिखती हैं कि इस फिल्म में महारानी एलिजाबेथ जिस नवयुवक से मन ही मन प्यार करती है उसे जब समुद्री जहाज देकर एक काम सौंपती है तो दूर से दूरबीन लगाकर जाते हुए जहाज को देखकर परेशान हो जाती है. वह देखती है कि नौजवान की प्रेमिका भी जहाज पर उसके साथ है. वे दोनों डेक पर खड़े हैं. उस समय महारानी को परेशान देखकर उसका एक शुभचिंतक कहता है मैडम! लुक ए बिट हायर-ऊपर, उस नवयुवक और उसकी प्रेमिका के सिरों से ऊपर, महारानी के राज्य का झंडा लहरा रहा था.
वे बताती हैं, इस तरह मैं अपने आप से स्वयं ही कहती- अमृता! लुक ए बिट हायर और मैं जिंदगी की सारी हारों और परेशानियों से ऊपर देखने की कोशिश करने लगी- जहां मेरी कृतियां थी, मेरी कविताएं, मेरी कहानियां, मेरे उपन्यास.
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Tags: Hindi Literature, India Partition History, Literature and Art
FIRST PUBLISHED : August 31, 2023, 11:21 IST
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